चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Friday, December 25, 2015

ताकि प्रेम बना रहे

मेरी नर्म हथेली पर 
अपने गर्म होंठों के अहसास छोड़ता 
चल पड़ता है वो
और मै अन्यमनस्क सी
देखती हूँ अपनी हथेली
काश वक्त रूक जाये,
बस जरा सा ठहर जाये
लेकिन तुम्हारे साथ चलते 
घड़ी की सुईयां भी दौड़ती सी लगती है 
धीरे से मेरा हाथ मेरी गोद में रखकर,
हौले से पीठ थपथपाता है वो
अच्छा चलो-
अब चलना होगा,
सिर्फ प्रेम के सहारे ज़िंदगी नहीं कटती,
कुछ कमाई करलें 
तो प्रेम भी बना रहे, 
लेकिन मैने कब माँगा है तुमसे कुछ! 
वह सिर्फ मुस्कुराया और चल दिया
मै देखती रही...
बढता, गहराता, इठलाता, खूबसूरत प्रेम 
जो मेरे बदन से लिपटी रेशमी साड़ी सा 'मुलायम, 
घर में बिछे क़ालीन सा शालीन,
और भारी-भरकम वेलवेट के गद्दों सा गुदगुदा बन गया था
मेरी नर्म हथेली पर नमी सी थी
दूर कहीं लुप्त हो गई थी 
इमली के पेड़ पर पत्थर से उड़ती चिड़िया, 
लुप्त हो गई थी 
दो जोड़ी आँखे जो कोई फ़िल्मी गीत गुनगुनाती 
एक आवारा ख़्वाब बुना करती थी, 
हाँ प्रेम को ताउम्र बनाये रखना 
ही जरूरी होता है...।
शानू


Thursday, December 24, 2015

खत

बहुत दिन हुए नहीं लिख पाई
लिखती तो तुम भी जान पाते
वो हजारों अनकही बातें
जो रात दिन बुनती हैं ख्वाब
ख्वाब जिसमें होते हो तुम और तुम्हारा खयाल
जब हम मिले थे पिछली दफ़ा
मेरे खयालों की पोटली सिमट गई थी
तुम्हारे इर्द-गिर्द
चुपचाप खामोशी के साथ
लेकिन मै
मै नहीं रह पाई थी खामोश
बतियाती रही तुम्हारी खामोश साँसों से
साँसे जो सड़क पर आये ब्रेकर सी उठती गिरती
बयां करती रही तुम्हारी बेचैनी
तुम शायद घड़ी की सुई से सड़क की दूरी नापते
सुन रहे थे आधी बातें
या फ़िर ठीक से सुन भी न पाये थे
सड़क के या अंदरूनी कोलाहल में
तुम्हारे मेरे दरमियां 
एक बेल्ट का रिश्ता भी होता है
जिसे तुम कभी भूलते नहीं हो
जो न तुम्हे हिलने देता है न मुझे डगमगाने
उसी बंधन में बंधी मैं
बाहर भीतर के कोलाहल से बेफ़िक्र होकर
देखती रही एकटक तुम्हारी ओर
कि तुम पलक झपकाते हुए या गेयर बदलते हुये
देखोगे बगल वाली सीट की ओर... 
मै भी मुस्कुरा दूंगी
या दौड़ती भागती सरपट इस सड़क पर
देख लोगे साइड मिरर में झाँकती मेरी आँखें को
सोचती हूँ
कल जब आओगे मै तुम्हारी सीट के पीछॆ ही बैठूंगी
जब देखोगे तुम बैक व्यू मिरर में
तो देख पाओगे
खिलखिलाती हँसी से सराबोर
इन आँखों को
जो न जाने कब से बहे जा रही हैं
सिर्फ़ तुम्हारे होठों पर एक मुस्कुराहट लाने के लिये...
शानू


Tuesday, November 3, 2015

तुम से "मै"

दिन बहुत हुये...
दिन नहीं साल हुये हैं
हाँ सालों की ही बातें है
जाने कितनी मुलाक़ातें है
गिन सकते हैं हम उँगलियों पर लेकिन
दिन...महिने...साल...
गिन लेने के बाद भी
गिनकर बता सकोगे!
बाल से भी बारीक उन लम्हों को 
जो बिताये है तुम्हारे साथ 
और साथ बिताने के इंतज़ार में 
ढुलकते आँसुओं का सूख जाना
लेकिन आज
उम्र के साथ और भी गहरे में
बैठ गया है तुम्हारा प्यार 
बेचैनी बढ़ जाने से 
आँखें ज्यादा नमीदार हो गई है
हाँ इंतज़ार आज भी उतना ही है
मेरे तुम से मिलने का
क्योकि तुमने ही कहा था एक दिन
मुझसे पूरे होते हो तुम 
और तुमसे मैं
तभी से मै 
मेरे भीतर बसे "तुम" से मिलकर 
हर दिन पूर्ण हो जाती हूँ...।
शानू


अंतिम सत्य